उत्तराखंड भाजपा की हाल ही में घोषित 42-सदस्यीय प्रदेश कार्यकारिणी पर सवाल उठने शुरू हो गए हैं। अनुसूचित जाति मोर्चा के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष समीर आर्य ने पार्टी नेतृत्व पर अनुसूचित जाति समाज की अनदेखी का आरोप लगाते हुए संगठनात्मक संतुलन पर गंभीर प्रश्नचिन्ह खड़े किए हैं।
समीर आर्य ने प्रदेश अध्यक्ष महेंद्र भट्ट को भेजे पत्र में कहा है कि प्रदेश कार्यकारिणी की संरचना में 19% आबादी वाले अनुसूचित जाति वर्ग को न्यायोचित प्रतिनिधित्व नहीं दिया गया है। उन्होंने आरोप लगाया कि कार्यकारिणी में अनुसूचित जाति मोर्चा के अध्यक्ष (जो आरक्षित पद है) के अलावा केवल एक पद प्रदेश उपाध्यक्ष इस वर्ग को दिया गया है।
“कम आबादी वाले वर्गों को कई पद, हमें सिर्फ एक?”
आर्य ने पत्र में यह भी उल्लेख किया कि कुछ ऐसे वर्ग जिन्हें राज्य में अपेक्षाकृत कम जनसंख्या प्राप्त है, उन्हें पांच से छह पद दिए गए हैं। उन्होंने कहा कि यह न केवल सामाजिक न्याय के सिद्धांतों के विरुद्ध है, बल्कि भाजपा के सर्वसमावेशी दृष्टिकोण को भी कमजोर करता है।
“राज्य की लगभग हर विधानसभा में अनुसूचित जाति के मतदाता निर्णायक भूमिका में हैं। बावजूद इसके, उन्हें नजरअंदाज किया गया है,” – समीर आर्य
संगठन के भीतर असंतोष ?
अपने पत्र में आर्य ने लिखा है कि प्रदेश की सामाजिक संरचना में अनुसूचित जाति वर्ग—पर्वतीय और मैदानी दोनों क्षेत्रों में—एक महत्वपूर्ण स्थान रखता है। ऐसे में, प्रतिनिधित्व की इस असमानता से कार्यकर्ताओं और समाज में असंतोष स्वाभाविक है।
उन्होंने कहा कि आगामी विधानसभा चुनाव (2027) के दृष्टिगत यह कदम राजनीतिक दृष्टि से घातक सिद्ध हो सकता है, यदि इसे समय रहते नहीं सुधारा गया।
प्रदेश अध्यक्ष ने क्या कहा?
जब इस विषय पर भाजपा प्रदेश अध्यक्ष महेंद्र भट्ट से प्रतिक्रिया मांगी गई तो उन्होंने कहा “भाजपा अनुसूचित वर्ग का सम्मान करती है। समीर आर्य ने जिन विषयों को उठाया है, वह मेरी जानकारी में नहीं हैं। मामले की जानकारी लेकर उचित कदम उठाए जाएंगे।”
क्या कहती है जनसंख्या और प्रतिनिधित्व की हकीकत?
2011 की जनगणना के अनुसार उत्तराखंड में अनुसूचित जाति की आबादी लगभग 19% है। राज्य की कई विधानसभा सीटों में यह वर्ग निर्णायक भूमिका में है। इसके बावजूद पार्टी की शीर्ष संरचना में उनकी नगण्य भागीदारी *राजनीतिक रणनीति और सामाजिक समीकरणों पर गंभीर सवाल खड़े करती है।
समीर आर्य के पत्र ने भाजपा के सामाजिक संतुलन और संगठनात्मक समावेशिता पर बहस छेड़ दी है। यह देखना दिलचस्प होगा कि पार्टी इस मुद्दे को केवल एक असंतुष्ट नेता की राय मानकर टालती है, या एक बड़े वर्ग की आवाज़ समझकर संवाद और सुधार की दिशा में ठोस कदम उठाती है।